हर हिन्दू याद कर ले इन 15 मन्त्रों को


1. श्री महादेव जी

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्!!


(2). श्री गणेश जी

वक्रतुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ

*निर्विघ्नम कुरू मे देव, सर्वकार्येषु सर्वदा!!


(3). श्री हरी विष्णु जी

मङ्गलम् भगवान विष्णुः, मङ्गलम् गरुणध्वजः।

मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः, मङ्गलाय तनो हरिः॥


(4). श्री ब्रह्मा जी

ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा नमस्ते परमात्ने।

निर्गुणाय नमस्तुभ्यं सदुयाय नमो नम:।।


5).( श्री कृष्ण जी

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।।


(6). श्री राम जी

श्री रामाय रामभद्राय रामचन्द्राय वेधसे रघुनाथाय नाथाय सीताया पतये नमः !


(7). मां दुर्गा जी

ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते


(8). मां महालक्ष्मी जी

ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो, धन धान्यः सुतान्वितः मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः ॐ ।।


(9). मां सरस्वती

*ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।

*विद्यारम्भं करिष्यामि सिद्धिर्भवतु मे सदा।।


(10). मां महाकाली

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हली ह्रीं खं स्फोटय क्रीं क्रीं क्रीं फट !!


(11). श्री हनुमान जी

मनोजवं मारुततुल्यवेगं, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठ।

वातात्मजं वानरयूथ मुख्यं, श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥


(12). श्री शनिदेव जी

ॐ नीलांजन समाभासं रविपुत्रं यमाग्रजम।छायामार्तण्डसम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम् ||


(13). श्री कार्तिकेय

ॐ शारवाना-भावाया नम: ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा, देवसेना मन: कांता कार्तिकेया नामोस्तुते


(14). काल भैरव

ॐ ह्रीं वां बटुकाये क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये कुरु कुरु बटुकाये ह्रीं बटुकाये स्वाहा


(15)


गायत्री मंत्र

*ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥

ईष्ट देव की कृपा पाएं,सकारात्मकता से


सकारात्मक सोच ऐसा कोई वरदान नहीं है जो केवल उन गुरुओं के पास होता है जो जीने का तरीका सिखाते हैं बल्कि अभ्यास द्वारा कोई भी व्यक्ति अपने जीवन में इसे अपना सकता है । सकारात्मक सोच को एक दृष्टांत द्वारा भी समझा जा सकता है उदाहरण के लिए एक गिलास पानी से आधा भरा है। 'गिलास आधा 'खाली' है'।

सकारात्मक सोच कैसे लायें :

हमेशा अच्छा सोचें।

देखने का नजरिया बदलो।

शिकायत मत करो।

परेशानी के ऊपर फोकस मत करो।

हमेशा हंसते रहो।

एक्सरसाइज करो।

ध्यान करो।

दूसरों को प्रोत्साहित करो।

ईश्वर को  पाने के लिए किसी लंबी चौड़ी पूजा पाठ साधना की आवश्यकता नहीं है


ईश्वर मिलता है सकारात्मकता से


सकारात्मकता से ही ईष्ट सिध्दि भी मिलती ह


सुन्दर कांड में श्रीरामजी स्वयं ही कह रहे हैं


निर्मल मन जन सो मोहि पावा।

मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।


विभीषण जी सदैव ही सकारात्मक रहते थे

उनकी भी पूर्वाभास शक्ति बहुत अद्भुत  विलक्षण थी

श्री हनुमान जब ब्राह्मण वेश मे उनके सम्मुख गये तब विभीषण जी कहते है

की तुम्ह हरि दासन्ह मंह कोई

मोरे हृदय प्रीति अति होई


मुझे लग रहा है कि तुम श्रीहरि के सेवकों में से एक  हो

तब हनुमान जी उन्हें अपने    वास्तविक रुप दिखाते हैं

कारण एक ही है

सकारात्मकता

आगे जब,रावण उन्हें लात मार कर निष्कासित करते हैं

तब भी वे सकारात्मक ही रहते हैं

अपने भाग्य को नीयती को प्रारब्ध को सहर्ष स्वीकार कर कहते हैं


तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा

रामु भेजें हित नाथ तुम्हारा


ईश्वर  आप को सद्बुद्धि दे


शबरी ने कोई पूजा पाठ नहीं की परंतु सकारात्मक रही

एक दिन राम आयेंगे


ईश्वर की प्राप्ति असंभव है

परन्तु दर्शन शीघ्र संभव है


इसलिए सदैव सकारात्मक रहे

आप जितनी भक्ति , जितनी पूजा पाठ करते हैं ,वो आपको ईश्वर के निकट ले जाने लगती है

और उस तक पहुंचते ही ईश्वर को अपने साथ लाने लगती है


पूजा पाठ, भक्ति, साधना,जप तप यज्ञ 

सभी देवी-देवताओं को निरंतर दिये गये

निमंत्रण मातरम है


जितना आप चलते हैं

उतना ही ईश्वर,ईष्ट  देवी देवता भी चलते हैं


आप तो पहुंच ही नहीं पाते हैं

आपके पहुंचने से पहले ही 

ईश्वर आप को मध्य मार्ग में स्वयं ही लेनै आ पहुंचता है


ईश्वर ऐसा ही है

ऐसा ही होता है


यही सब करते रहता है

जानिए पूजा-पाठ में उपयोग किये जाने वाले शब्दों के अर्थ

 


(1). पंचोपचार – गन्ध , पुष्प , धूप , दीप तथा नेवैद्य द्वारा पूजन करने को ‘पंचोपचार’ कहते हैं।

(2). पंचामृत – दूध ,दही , घृत, मधु { शहद } तथा मिश्री [ शक्कर ] इनके मिश्रण को ‘पंचामृत’ कहते हैं।

(3). पंचगव्य – गाय के दूध ,घृत , मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में ‘पंचगव्य’ कहते हैं।

(4). षोडशोपचार – आवाहन् , आसन , पाध्य , अर्घ्य , आचमन , स्नान , वस्त्र , अलंकार , सुगंध , पुष्प , धूप , दीप , नैवैध्य , अक्षत , ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को ‘षोडशोपचार’ कहते हैं।

(5). दशोपचार – पाध्य , अर्घ्य , आचमनीय , मधुपक्र , आचमन , गंध , पुष्प , धूप , दीप तथा नैवैध्य द्वारा पूजन करने की विधि को ‘दशोपचार’ कहते हैं।

(6). त्रिधातु –सोना , चांदी और लोहा कुछ आचार्य सोना ,चांदी , तांबा इनके मिश्रण को भी ‘त्रिधातु’ कहते हैं।

(7). पंचधातु – सोना , चांदी , लोहा , तांबा और जस्ता।

(8). अष्टधातु – सोना , चांदी, लोहा , तांबा , जस्ता , रांगा ,कांसा और पारा।

(9). नैवैध्य –खीर , मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएं।

(10). नवग्रह –सूर्य , चन्द्र , मंगल , बुध , गुरु , शुक्र , शनि , राहु और केतु।

(11). नवरत्न – माणिक्य , मोती ,मूंगा , पन्ना , पुखराज , हीरा , नीलम , गोमेद , और वैदूर्य।

(12). अष्टगंध – अगर , तगर , गोरोचन , केसर , कस्तूरी ,,श्वेत चन्दन , लाल चन्दन और सिन्दूर { देवपूजन हेतु }

      अगर , लाल चन्दन , हल्दी , कुमकुम , गोरोचन , जटामासी , शिलाजीत और कपूर [ देवी पूजन हेतु ]

(13). गंधत्रय – सिन्दूर , हल्दी , कुमकुम।

(14). पञ्चांग – किसी वनस्पति के पुष्प , पत्र , फल , छाल ,और जड़।

(15). दशांश – दसवां भाग। 1/10

(16). सम्पुट –मिट्टी के दो शकोरों को एक-दुसरे के मुंह से मिला कर बंद करना।

(17). भोजपत्र – एक वृक्ष की छाल

मन्त्र प्रयोग के लिए भोजपत्र का ऐसा टुकडा लेना चाहिए ,जो कटा-फटा न हो।

(18). मन्त्र धारण –किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरुष दोनों ही कंठ में धारण कर सकते हैं ,परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहें तो पुरुष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण

करना चाहिए।

(19). मुद्राएँ –हाथों की अँगुलियों को किसी विशेष स्तिथि में लेने कि क्रिया को ‘मुद्रा’ कहा जाता है। मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं।

(20). स्नान –यह दो प्रकार का होता है।बाह्य तथा आतंरिक,बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान जप द्वारा होता है।

(21). तर्पण –नदी , सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर , हाथ की अंजुली द्वारा जल गिराने की क्रिया को ‘तर्पण’ कहा जाता है। जहाँ नदी , सरोवर आदि न हो , वहां किसी पात्र में पानी भरकर भी ‘तर्पण’ की क्रिया संपन्न कर ली जाती है।

(22). आचमन – हाथ में जल लेकर उसे अपने मुंह में डालने की क्रिया को आचमन कहते हैं।

(23).करन्यास –अंगूठा , अंगुली , करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को ‘करन्यास’ कहा जाता है।

(24). हृद्याविन्यास –ह्रदय आदि अंगों को स्पर्श करते हुए मंत्रोच्चारण को ‘हृदय्विन्यास’ कहते हैं।

(25). अंगन्यास – ह्रदय ,शिर , शिखा , कवच , नेत्र एवं करतल – इन 6 अंगों से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को ‘अंगन्यास’ कहते हैं।

(26). अर्घ्य – शंख , अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अर्घ्य देना कहा जाता है घड़ा या कलश में पानी भरकर रखने को अर्घ्य-स्थापन कहते हैं।अर्घ्य पात्र में दूध ,तिल , कुशा के टुकड़े , सरसों , जौ , पुष्प , चावल एवं कुमकुम इन सबको डाला जाता है

(27). पंचायतन पूजा – इसमें पांच देवताओं – विष्णु , गणेश ,सूर्य , शक्ति तथा शिव का पूजन किया जाता है।

(28). काण्डानुसमय – एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर ,अन्य देवता की पूजा करने को ‘काण्डानुसमय’ कहते हैं।

(29). उद्धर्तन – उबटन।

(30). अभिषेक – मन्त्रोच्चारण करते हुए शंख से सुगन्धित जल छोड़ने को ‘अभिषेक’ कहते हैं।

(31). उत्तरीय – वस्त्र।

(32). उपवीत – यज्ञोपवीत [ जनेऊ ]।

(33). समिधा – जिन लकड़ियों को अग्नि में प्रज्जवलित कर होम किया जाता है उन्हें समिधा कहते हैं।समिधा के लिए आक ,पलाश , खदिर , अपामार्ग , पीपल ,उदुम्बर ,शमी , कुषा तथा आम की लकड़ियों को ग्राह्य माना गया है।

(34). प्रणव –ॐ।

(35). मन्त्र ऋषि – जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम शिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत सिद्ध किया था ,वह उस मंत्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरु मानकर श्रद्धापूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।

(36). छन्द – मंत्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को ‘छन्द’ कहते हैं। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मंत्र का उच्चारण चूँकि मुख से होता है अतः छन्द का मुख से न्यास किया जाता है।

(37). देवता – जीव मात्र के समस्त क्रिया- कलापों को प्रेरित , संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणशक्ति को देवता कहते हैं यह शक्ति मनुष्य के हृदय में स्थित होती है ,अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

(38). बीज– मन्त्र शक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यांग में किया जाता है।

(39). शक्ति – जिसकी सहायता से

बीज मन्त्र बन जाता है वह तत्व ‘शक्ति’

कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

(40). विनियोग– मन्त्र को फल की दिशा का निर्देश देना विनियोग कहलाता है।

(41). उपांशु जप – जिह्वा एवं होठों को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनाई पड़ने योग्य मंत्रोच्चारण को ‘उपांशुजप’ कहते हैं।

(42). मानस जप – मन्त्र , मंत्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर मन ही मन मन्त्र

का उच्चारण करने को ‘मानसजप’ कहते हैं।

(43). अग्नि की जिह्वाएँ – अग्नि की 7 जिह्वाएँ मानी गयी हैं , उनके नाम हैं –

   1. हिरण्या 2. गगना 3. रक्ता 4. कृष्णा 

   5. सुप्रभा 6.बहुरूपा एवं 7. अतिरिक्ता।

(44). 1. काली 2.कराली 3. मनोभवा 4. सुलोहिता 5. धूम्रवर्णा 6.स्फुलिंगिनी एवं 7. विश्वरूचि।

(45). प्रदक्षिणा –देवता को साष्टांग दंडवत करने के पश्चात इष्ट देव की परिक्रमा करने को ‘प्रदक्षिणा’ कहते हैं।

विष्णु , शिव , शक्ति , गणेश और सूर्य आदि देवताओं की  क्रमशः 4, 1, 2 , 1, 3, अथवा 7 परिक्रमाऐं करनी चाहियें।

(46). साधना – साधना 5 प्रकार

की होती है – 

     1.अभाविनी 2. त्रासी 3. दोवोर्धी

     4. सौतकी 5.आतुरी।

     [1] अभाविनी – पूजा के साधन

तथा उपकरणों के अभाव से , मन से अथवा जल मात्र से जो पूजा साधना की जाती है , उसे‘अभाविनी’ कहा जाता है।

     [2] त्रासी –जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से अथवा मान्सोपचारों से पूजन करता है , उसे ‘त्रासी’कहते हैं। यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।

     [3] दोवोर्धी – बालक , वृद्ध , स्त्री ,

मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जाने वाली पूजा‘दोर्वोधी’ कहलाती है।


[4] सौतकी -- सूतक में व्यक्ति मानसिक संध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को ‘सौतकी’ कहा जाता है।


[5] आतुरी --रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें 

देवमूर्ति अथवा सूर्यमंडल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ाएं फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरु तथा ब्राह्मणों की पूजा करके, पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगे – ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजनकरे तो इस पूजा को ‘आतुरी’ कहा जाएगा।

(47). अपने श्रम का महत्व –पूजा की वस्तुएं स्वयं लाकर तन्मय भाव से पूजन करने से पूर्ण फल प्राप्त होता है।अन्य व्यक्ति द्वारा दिए गये साधनों से पूजा करने पर आधा फल मिलता है।

(48). वर्जित पुष्पादि –

     [1] पीले रंग की कट सरैया , नाग चंपा तथा दोनों प्रकार की वृहती के फूल पूजा में नही चढाये जाते।

     [2] सूखे ,बासी , मलिन , दूषित तथा उग्र गंध वाले पुष्प देवता पर नही चढाये जाते।

     [3] विष्णु पर अक्षत , आक तथा धतूरा नही चढाये जाते।

     [4] शिव पर केतकी , बन्धुक { दुपहरिया } , कुंद , मौलश्री , कोरैया , जयपर्ण , मालती और

जूही के पुष्प नही चढाये जाते।

     [5]दुर्गा पर दूब , आक , हरसिंगार , बेल तथा तगर नही चढाये जाते।

     [6] सूर्य तथा गणेश पर तुलसी नही चढाई जाती।

     [7] चंपा तथा कमल की कलियों के अतिरिक्त अन्य पुष्पों की कलियाँ नही चढाई जाती।

(49). ग्राह्यपुष्प – 

    ~विष्णु पर श्वेत तथा पीले पुष्प , तुलसी

    ~ सूर्य , गणेश पर लाल रंग के पुष्प , 

    ~लक्ष्मी पर कमल,

    ~शिव के ऊपर आक , धतूरा , बिल्वपत्र तथा कनेर के पुष्प विशेष रूप से चढाये जाते हैं। 

    ~अमलतास के पुष्प तथा तुलसी को निर्माल्य नही माना जाता।

(50). ग्राह्य पत्र- – तुलसी , मौलश्री ,

चंपा , कमलिनी , बेल ,श्वेत कमल , अशोक ,

मैनफल , कुषा , दूर्वा , नागवल्ली , अपामार्ग ,

विष्णुक्रान्ता , अगस्त्य तथा आंवला इनके पत्ते देव पूजन में ग्राह्य हैं।

(51). ग्राह्य फल – जामुन , अनार , नींबू  , इमली , बिजौरा , केला , आंवला , बेर , आम तथा कटहल ये फल देवपूजन में ग्राह्य हैं।

(52). धूप – अगर एवं गुग्गुल की धूप विशेष

रूप से ग्राह्य है ,यों चन्दन-चूरा , बालछड़ आदि का प्रयोग भी धूप के रूप में किया जाता है।

(53). दीपक की बत्तियां – यदि दीपक में अनेक

बत्तियां हों तो उनकी संख्या विषम रखनी चाहिए ।

   दायीं ओर के दीपक में सफ़ेद रंग की बत्ती तथा 

बायीं ओर के दीपक में लाल रंग की बत्ती डालनी चाहिए।

   

~~ अगर आप घर पर सपरिवार साथ हैं तो अपने बेटे एवं बेटी को अपने पोते एवं पोती को यह सब सिखाएं क्योंकि उन्हें हिंदू धर्म के विषय में ज्ञान होगा

श्री दुर्गा कवच ( हिंदी अनुवाद सहित )


 

॥अथ देव्यः कवचम् ॥

ॐ अस्य श्रीचण्डीकवचस्य ब्रह्मा ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः,
चामुण्डा देवता, अङ्गन्यासोक्तमातरो बीजम्, दिग्बन्धदेवतास्तत्त्वम्,
श्रीजगदम्बाप्रीत्यर्थे सप्तशतीपाठाङ्गत्वेन जपे विनियोगः।

ॐ नमश्चण्डिकायै

॥ मार्कण्डेय उवाच ॥

ॐ यद्गुह्यं परमं लोके सर्वरक्षाकरं नृणाम् ।
यन्न कस्यचिदाख्यातं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १॥

॥ ब्रह्मोवाच ॥

अस्ति गुह्यतमं विप्र सर्वभूतोपकारकम्।
देव्यास्तु कवचं पुण्यं तच्छृणुष्व महामुने॥२॥

प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम् ॥३॥

पञ्चमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्॥४॥

नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गाः प्रकीर्तिताः।
उक्तान्येतानि नामानि ब्रह्मणैव महात्मना॥५॥

अग्निना दह्यमानस्तु शत्रुमध्ये गतो रणे।
विषमे दुर्गमे चैव भयार्ताः शरणं गताः॥६॥

न तेषां जायते किंचिदशुभं रणसंकटे।
नापदं तस्य पश्यामि शोकदुःखभयं न हि॥७॥

यैस्तु भक्त्या स्मृता नूनं तेषां वृद्धिः प्रजायते।
ये त्वां स्मरन्ति देवेशि रक्षसे तान्न संशयः॥८॥

प्रेतसंस्था तु चामुण्डा वाराही महिषासना।
ऐन्द्री गजसमारुढा वैष्णवी गरुडासना॥९॥

माहेश्‍वरी वृषारुढा कौमारी शिखिवाहना।
लक्ष्मीः पद्मासना देवी पद्महस्ता हरिप्रिया॥१०॥

श्‍वेतरुपधरा देवी ईश्‍वरी वृषवाहना।
ब्राह्मी हंससमारुढा सर्वाभरणभूषिता॥११॥

इत्येता मातरः सर्वाः सर्वयोगसमन्विताः।
नानाभरणशोभाढ्या नानारत्नोपशोभिताः॥१२॥

दृश्यन्ते रथमारुढा देव्यः क्रोधसमाकुलाः।
शङ्खं चक्रं गदां शक्तिं हलं च मुसलायुधम्॥१३॥

खेटकं तोमरं चैव परशुं पाशमेव च।
कुन्तायुधं त्रिशूलं च शार्ङ्गमायुधमुत्तमम्॥१४॥

दैत्यानां देहनाशाय भक्तानामभयाय च।
धारयन्त्यायुधानीत्थं देवानां च हिताय वै॥१५॥

नमस्तेऽस्तु महारौद्रे महाघोरपराक्रमे।
महाबले महोत्साहे महाभयविनाशिनि॥१६॥

त्राहि मां देवि दुष्प्रेक्ष्ये शत्रूणां भयवर्धिनि।
प्राच्यां रक्षतु मामैन्द्री आग्नेय्यामग्निदेवता॥१७॥

दक्षिणेऽवतु वाराही नैर्ऋत्यां खड्गधारिणी।
प्रतीच्यां वारुणी रक्षेद् वायव्यां मृगवाहिनी॥१८॥

उदीच्यां पातु कौमारी ऐशान्यां शूलधारिणी।
ऊर्ध्वं ब्रह्माणि मे रक्षेदधस्ताद् वैष्णवी तथा॥१९॥

एवं दश दिशो रक्षेच्चामुण्डा शववाहना।
जया मे चाग्रतः पातु विजया पातु पृष्ठतः॥२०॥

अजिता वामपार्श्वे तु दक्षिणे चापराजिता।
शिखामुद्योतिनि रक्षेदुमा मूर्ध्नि व्यवस्थिता॥२१॥

मालाधरी ललाटे च भ्रुवौ रक्षेद् यशस्विनी।
त्रिनेत्रा च भ्रुवोर्मध्ये यमघण्टा च नासिके॥२२॥

शङ्खिनी चक्षुषोर्मध्ये श्रोत्रयोर्द्वारवासिनी।
कपोलौ कालिका रक्षेत्कर्णमूले तु शांकरी॥२३॥

नासिकायां सुगन्धा च उत्तरोष्ठे च चर्चिका।
अधरे चामृतकला जिह्वायां च सरस्वती॥२४॥

दन्तान् रक्षतु कौमारी कण्ठदेशे तु चण्डिका।
घण्टिकां चित्रघण्टा च महामाया च तालुके ॥२५॥

कामाक्षी चिबुकं रक्षेद् वाचं मे सर्वमङ्गला।
ग्रीवायां भद्रकाली च पृष्ठवंशे धनुर्धरी॥२६॥

नीलग्रीवा बहिःकण्ठे नलिकां नलकूबरी।
स्कन्धयोः खङ्‍गिनी रक्षेद् बाहू मे वज्रधारिणी॥२७॥

हस्तयोर्दण्डिनी रक्षेदम्बिका चाङ्गुलीषु च।
नखाञ्छूलेश्‍वरी रक्षेत्कुक्षौ रक्षेत्कुलेश्‍वरी॥२८॥

स्तनौ रक्षेन्महादेवी मनः शोकविनाशिनी।
हृदये ललिता देवी उदरे शूलधारिणी॥२९॥

नाभौ च कामिनी रक्षेद् गुह्यं गुह्येश्‍वरी तथा।
पूतना कामिका मेढ्रं गुदे महिषवाहिनी ॥३०॥

कट्यां भगवती रक्षेज्जानुनी विन्ध्यवासिनी।
जङ्घे महाबला रक्षेत्सर्वकामप्रदायिनी ॥३१॥

गुल्फयोर्नारसिंही च पादपृष्ठे तु तैजसी।
पादाङ्गुलीषु श्री रक्षेत्पादाधस्तलवासिनी॥३२॥

नखान् दंष्ट्राकराली च केशांश्‍चैवोर्ध्वकेशिनी।
रोमकूपेषु कौबेरी त्वचं वागीश्‍वरी तथा॥३३॥

रक्तमज्जावसामांसान्यस्थिमेदांसि पार्वती।
अन्त्राणि कालरात्रिश्‍च पित्तं च मुकुटेश्‍वरी॥३४॥

पद्मावती पद्मकोशे कफे चूडामणिस्तथा।
ज्वालामुखी नखज्वालामभेद्या सर्वसंधिषु॥३५॥

शुक्रं ब्रह्माणि मे रक्षेच्छायां छत्रेश्‍वरी तथा।
अहंकारं मनो बुद्धिं रक्षेन्मे धर्मधारिणी॥३६॥

प्राणापानौ तथा व्यानमुदानं च समानकम्।
वज्रहस्ता च मे रक्षेत्प्राणं कल्याणशोभना॥३७॥

रसे रुपे च गन्धे च शब्दे स्पर्शे च योगिनी।
सत्त्वं रजस्तमश्‍चैव रक्षेन्नारायणी सदा॥३८॥

आयू रक्षतु वाराही धर्मं रक्षतु वैष्णवी।
यशः कीर्तिं च लक्ष्मीं च धनं विद्यां च चक्रिणी॥३९॥

गोत्रमिन्द्राणि मे रक्षेत्पशून्मे रक्ष चण्डिके।
पुत्रान् रक्षेन्महालक्ष्मीर्भार्यां रक्षतु भैरवी॥४०॥

पन्थानं सुपथा रक्षेन्मार्गं क्षेमकरी तथा।
राजद्वारे महालक्ष्मीर्विजया सर्वतः स्थिता॥४१॥

रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं कवचेन तु।
तत्सर्वं रक्ष मे देवि जयन्ती पापनाशिनी॥४२॥

पदमेकं न गच्छेत्तु यदीच्छेच्छुभमात्मनः।
कवचेनावृतो नित्यं यत्र यत्रैव गच्छति॥४३॥

तत्र तत्रार्थलाभश्‍च विजयः सार्वकामिकः।
यं यं चिन्तयते कामं तं तं प्राप्नोति निश्‍चितम्।
परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यते भूतले पुमान्॥४४॥

निर्भयो जायते मर्त्यः संग्रामेष्वपराजितः।
त्रैलोक्ये तु भवेत्पूज्यः कवचेनावृतः पुमान्॥४५॥

इदं तु देव्याः कवचं देवानामपि दुर्लभम् ।
यः पठेत्प्रयतो नित्यं त्रिसन्ध्यं श्रद्धयान्वितः॥४६॥

दैवी कला भवेत्तस्य त्रैलोक्येष्वपराजितः।
जीवेद् वर्षशतं साग्रमपमृत्युविवर्जितः। ४७॥

नश्यन्ति व्याधयः सर्वे लूताविस्फोटकादयः।
स्थावरं जङ्गमं चैव कृत्रिमं चापि यद्विषम्॥४८॥

अभिचाराणि सर्वाणि मन्त्रयन्त्राणि भूतले।
भूचराः खेचराश्‍चैव जलजाश्‍चोपदेशिकाः॥४९॥

सहजा कुलजा माला डाकिनी शाकिनी तथा।
अन्तरिक्षचरा घोरा डाकिन्यश्‍च महाबलाः॥५०॥

ग्रहभूतपिशाचाश्‍च यक्षगन्धर्वराक्षसाः।
ब्रह्मराक्षसवेतालाः कूष्माण्डा भैरवादयः ॥५१॥

नश्यन्ति दर्शनात्तस्य कवचे हृदि संस्थिते।
मानोन्नतिर्भवेद् राज्ञस्तेजोवृद्धिकरं परम्॥५२॥

यशसा वर्धते सोऽपि कीर्तिमण्डितभूतले।
जपेत्सप्तशतीं चण्डीं कृत्वा तु कवचं पुरा॥५३॥

यावद्भूमण्डलं धत्ते सशैलवनकाननम्।
तावत्तिष्ठति मेदिन्यां संततिः पुत्रपौत्रिकी॥५४॥

देहान्ते परमं स्थानं यत्सुरैरपि दुर्लभम्।
प्राप्नोति पुरुषो नित्यं महामायाप्रसादतः॥५५॥

लभते परमं रुपं शिवेन सह मोदते॥ॐ॥५६॥

इति देव्याः कवचं सम्पूर्णम्।

साधकों के कल्याणार्थ दुर्गा कवच यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है। कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है। 

ॐ श्री चण्डिका देवी को नमस्कार है।

मार्कण्डेय जी ने कहा - हे पितामह! जो इस संसार में परम गोपनीय तथा मनुष्यों की सब प्रकार से रक्षा करने वाला है और जो अब तक आपने दूसरे किसी के सामने प्रकट नहीं किया हो, ऐसा कोई साधन मुझे बताइये। |1|

ब्रह्माजी बोले - ब्रह्मन्! ऐसा साधन तो एक देवी का कवच ही है, जो गोपनीय से भी परम गोपनीय, पवित्र तथा सम्पूर्ण प्राणियों का उपकार करनेवाला है। महामुने! उसे श्रवण करो। |2|

देवीकी नौ मूर्तियाँ हैं , जिन्हे नवदुर्गा कहते हैं। उनके पृथक पृथक नाम बतलाये जाते हैं। प्रथम नाम शैलपुत्री (हिमालय की पुत्री पार्वती देवी) है, दूसरी मूर्तिका नाम ब्रह्मचारिणी है। तीसरा स्वरूप चन्द्रघण्टा के नामसे प्रसिद्ध है। चौथी मूर्ति को कूष्माण्डा कहते हैं। पाँचवीं दुर्गा का नाम स्कन्दमाता है। देवी के छठे रूप को कात्यायनी कहते हैं। सातवाँ कालरात्रि और आठवाँ स्वरूप महागौरी के नाम से प्रसिद्ध है। नवीं दुर्गा का नाम सिद्धिदात्री है।  ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं। ये सब नाम सर्वज्ञ महात्मा वेदभगवान् के द्वारा ही प्रतिपादित हुए हैं।|3-5|

जो मनुष्य अग्नि में जल रहा हो, रणभूमि में शत्रुओं से घिर गया हो, विषम संकट में फँस गया हो तथा इस प्रकार भय से आतुर होकर जो भगवती दुर्गा की शरण में प्राप्त हुए हों, उनका कभी कोई अमङ्गल नहीं होता। युद्ध के समय संकट में पड़ने पर भी उनके ऊपर कोई विपत्ति नहीं दिखाई देती।  उन्हें शोक, दु:ख और भय की प्राप्ति नहीं होती। |6-7|

जिन्होंने भक्तिपूर्वक देवी का स्मरण किया है, उनका निश्चय ही अभ्युदय होता है। देवेश्वरि! जो तुम्हारा चिन्तन करते हैं, उनकी तुम नि:सन्देह रक्षा करती हो। |8|

चामुण्डादेवी प्रेत पर आरूढ़ होती हैं। वाराही भैंसे पर सवारी करती हैं।  ऐन्द्री का वाहन ऐरावत हाथी है।  वैष्णवी देवी गरुड़ पर ही आसन जमाती हैं। |9|

माहेश्वरी वृषभ पर आरूढ़ होती हैं। कौमारी का वाहन मयूर है। भगवान् विष्णु की प्रियतमा लक्ष्मीदेवी कमल के आसन पर विराजमान हैं और हाथों में कमल धारण किये हुए हैं। |10|

वृषभ पर आरूढ़ ईश्वरी देवी ने श्वेत रूप धारण कर रखा है। ब्राह्मी देवी हंस पर बैठी हुई हैं और सब प्रकार के आभूषणों से विभूिषत हैं। |11|

इस प्रकार ये सभी माताएँ सब प्रकार की योग शक्तियों से सम्पन्न हैं। इनके सिवा और भी बहुत-सी देवियाँ हैं, जो अनेक प्रकार के आभूषणों की शोभा से युक्त तथा नाना प्रकार के रत्नों से सुशोभित हैं। |12|

ये सम्पूर्ण देवियाँ क्रोध में भरी हुई हैं और भक्तों की रक्षा के लिए रथ पर बैठी दिखाई देती हैं। ये शंख, चक्र, गदा, शक्ति, हल और मूसल, खेटक और तोमर, परशु तथा पाश, कुन्त और त्रिशूल एवं उत्तम शार्ङ्गधनुष आदि अस्त्र-शस्त्र अपने हाथ में धारण करती हैं। दैत्यों के शरीर का नाश करना, भक्तों को अभयदान देना और देवताओं का कल्याण करना यही उनके शस्त्र-धारण का उद्देश्य है। |13-15|

महान् रौद्ररूप, अत्यन्त घोर पराक्रम, महान् बल और महान् उत्साह वाली देवी! तुम महान् भय का नाश करने वाली हो, तुम्हें नमस्कार है। |16|

तुम्हारी ओर देखना भी कठिन है। शत्रुओं का भय बढ़ाने वाली जगदम्बिक मेरी रक्षा करो। पूर्व दिशा में ऐन्द्री (इन्द्रशक्ति) मेरी रक्षा करे। अग्निकोण में अग्निशक्ति,दक्षिण दिशा में वाराही तथा नैर्ऋत्यकोण में खड्गधारिणी मेरी रक्षा करे। पश्चिम दिशा में वारुणी और वायव्यकोण में मृग पर सवारी करने वाली देवी मेरी रक्षा करे। |17-18|

उत्तर दिशा में कौमारी और ईशानकोण में शूलधारिणी देवी रक्षा करे। ब्रह्माणि! तुम ऊपर की ओर से मेरी रक्षा करो और वैष्णवी देवी नीचे की ओर से मेरी रक्षा करे। |19|

इसी प्रकार शव को अपना वाहन बनानेवाली चामुण्डा देवी दसों दिशाओं में मेरी रक्षा करे। जया आगे से और विजया पीछे की ओर से मेरी रक्षा करे। |20|

वामभाग में अजिता और दक्षिण भाग में अपराजिता रक्षा करे। उद्योतिनी शिखा की रक्षा करे। उमा मेरे मस्तक पर विराजमान होकर रक्षा करे। |21|

ललाट में मालाधरी रक्षा करे और यशस्विनी देवी मेरी भौंहों का संरक्षण करे। भौंहों के मध्य भाग में त्रिनेत्रा और नथुनों की यमघण्टा देवी रक्षा करे। |22|

दोनों नेत्रों के मध्य भाग में शंखिनी और कानों में द्वारवासिनी रक्षा करे। कालिका देवी कपोलों की तथा भगवती शांकरी कानों के मूल भाग की रक्षा करे। |23|

नासिका में सुगन्धा और ऊपर के ओठ में चर्चिका देवी रक्षा करे। नीचे के ओठ में अमृतकला तथा जिह्वा में सरस्वती रक्षा करे। |24|

कौमारी दाँतों की और चण्डिका कण्ठप्रदेश की रक्षा करे। चित्रघण्टा गले की घाँटी की और महामाया तालु में रहकर रक्षा करे। |25|

कामाक्षी ठोढी की और सर्वमङ्गला मेरी वाणी की रक्षा करे। भद्रकाली ग्रीवा में और धनुर्धरी पृष्ठवंश (मेरुदण्ड) में रहकर रक्षा करे। |26|

कण्ठ के बाहरी भाग में नीलग्रीवा और कण्ठ की नली में नलकूबरी रक्षा करे। दोनों कंधों में खड्गिनी और मेरी दोनों भुजाओं की वज्रधारिणी रक्षा करे। |27|

दोनों हाथों में दण्डिनी और उँगलियों में अम्बिका रक्षा करे। शूलेश्वरी नखों की रक्षा करे। कुलेश्वरी कुक्षि (पेट) में रहकर रक्षा करे। |28|

महादेवी दोनों स्तनों की और शोकविनाशिनी देवी मन की रक्षा करे। ललिता देवी हृदय में और शूलधारिणी उदर में रहकर रक्षा करे। |29|

नाभि में कामिनी और गुह्यभाग की गुह्येश्वरी रक्षा करे। पूतना और कामिका लिङ्ग की और महिषवाहिनी गुदा की रक्षा करे। |30|

भगवती कटि भाग में और विन्ध्यवासिनी घुटनों की रक्षा करे। सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली महाबला देवी दोनों पिण्डलियों की रक्षा करे। |31|

नारसिंही दोनों घुट्ठियों की और तैजसी देवी दोनों चरणों के पृष्ठभाग की रक्षा करे। श्रीदेवी पैरों की उँगलियों में और तलवासिनी पैरों के तलुओं में रहकर रक्षा करे। |32|

अपनी दाढों के कारण भयंकर दिखायी देनेवाली दंष्ट्राकराली देवी नखों की और ऊर्ध्वकेशिनी देवी केशों की रक्षा करे। रोमावलियों के छिद्रों में कौबेरी और त्वचा की वागीश्वरी देवी रक्षा करे। |33|

पार्वती देवी रक्त, मज्जा, वसा, माँस, हड्डी और मेद की रक्षा करे। आँतों की कालरात्रि और पित्त की मुकुटेश्वरी रक्षा करे। |34|

मूलाधार आदि कमल-कोशों में पद्मावती देवी और कफ में चूड़ामणि देवी स्थित होकर रक्षा करे। नख के तेज की ज्वालामुखी रक्षा करे।  जिसका किसी भी अस्त्र से भेदन नहीं हो सकता, वह अभेद्या देवी शरीर की समस्त संधियों में रहकर रक्षा करे। |35|

ब्रह्माणी! आप मेरे वीर्य की रक्षा करें। छत्रेश्वरी छाया की तथा धर्मधारिणी देवी मेरे अहंकार, मन और बुद्धि की रक्षा करे। |36|

हाथ में वज्र धारण करने वाली वज्रहस्ता देवी मेरे प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान वायु की रक्षा करे। कल्याण से शोभित होने वाली भगवती कल्याण शोभना मेरे प्राण की रक्षा करे। |37|

रस, रूप, गन्ध, शब्द और स्पर्श इन विषयों का अनुभव करते समय योगिनी देवी रक्षा करे तथा सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की रक्षा सदा नारायणी देवी करे। |38|

वाराही आयु की रक्षा करे। वैष्णवी धर्म की रक्षा करे तथा चक्रिणी ( चक्र धारण करने वाली ) देवी यश, कीर्ति, लक्ष्मी, धन तथा विद्या की रक्षा करे। |39|

इन्द्राणि! आप मेरे गोत्र की रक्षा करें। चण्डिके! तुम मेरे पशुओं की रक्षा करो। महालक्ष्मी पुत्रों की रक्षा करे और भैरवी पत्नी की रक्षा करे। |40|

मेरे पथ की सुपथा तथा मार्ग की क्षेमकरी रक्षा करे। राजा के दरबार में महालक्ष्मी रक्षा करे तथा सब ओर व्याप्त रहने वाली विजया देवी सम्पूर्ण भयों से मेरी रक्षा करे। |41|

देवी! जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, रक्षा से रहित है, वह सब तुम्हारे द्वारा सुरक्षित हो; क्योंकि तुम विजयशालिनी और पापनाशिनी हो। |42|

यदि अपने शरीर का भला चाहे तो मनुष्य बिना कवच के कहीं एक पग भी न जाए। कवच का पाठ करके ही यात्रा करे। कवच के द्वारा सब ओर से सुरक्षित मनुष्य जहाँ-जहाँ भी जाता है, वहाँ-वहाँ उसे धन-लाभ होता है तथा सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि करने वाली विजय की प्राप्ति होती है। वह जिस-जिस अभीष्ट वस्तु का चिन्तन करता है, उस-उसको निश्चय ही प्राप्त कर लेता है। वह पुरुष इस पृथ्वी पर तुलना रहित महान् ऐश्वर्य का भागी होता है। |43-44|

कवच से सुरक्षित मनुष्य निर्भय हो जाता है। युद्ध में उसकी पराजय नहीं होती तथा वह तीनों लोकों में पूजनीय होता है। |45|

देवी का यह कवच देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तीनों संध्याओं के समय श्रद्धा के साथ इसका पाठ करता है,उसे दैवी कला प्राप्त होती है तथा वह तीनों लोकों में कहीं भी पराजित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह अपमृत्यु रहित हो, सौ से भी अधिक वर्षों तक जीवित रहता है। |46-47|

मकरी, चेचक और कोढ़ आदि उसकी सम्पूर्ण व्याधियाँ नष्ट हो जाती हैं। कनेर, भाँग, अफीम, धतूरे आदि का स्थावर विष, साँप और बिच्छू आदि के काटने से चढ़ा हुआ जंगम विष तथा अहिफेन और तेल के संयोग आदि से बनने वाला कृत्रिम विष - ये सभी प्रकार के विष दूर हो जाते हैं, उनका कोई असर नहीं होता। |48|

इस पृथ्वी पर मारण-मोहन आदि जितने आभिचारिक प्रयोग होते हैं तथा इस प्रकार के जितने मन्त्र-यन्त्र होते हैं, वे सब इस कवच को हृदय में धारण कर लेने पर उस मनुष्य को देखते ही नष्ट हो जाते हैं। ये ही नहीं, पृथ्वी पर विचरने वाले ग्राम देवता, आकाशचारी देव विशेष, जल के सम्बन्ध से प्रकट होने वाले गण, उपदेश मात्र से सिद्ध होने वाले निम्नकोटि के देवता, अपने जन्म के साथ प्रकट होने वाले देवता, कुल देवता, माला (कण्ठमाला आदि), डाकिनी, शाकिनी, अन्तरिक्ष में विचरण करनेवाली अत्यन्त बलवती भयानक डाकिनियाँ, ग्रह, भूत, पिशाच, यक्ष , गन्धर्व, राक्षस, ब्रह्मराक्षस, बेताल, कूष्माण्ड और भैरव आदि अनिष्टकारक देवता भी हृदय में कवच धारण किए रहने पर उस मनुष्य को देखते ही भाग जाते हैं।  कवचधारी पुरुष को राजा से सम्मान-वृद्धि प्राप्ति होती है।  यह कवच मनुष्य के तेज की वृद्धि करने वाला और उत्तम है। |49-52|

कवच का पाठ करने वाला पुरुष अपनी कीर्ति से विभूषित भूतल पर अपने सुयश से साथ-साथ वृद्धि को प्राप्त होता है। जो पहले कवच का पाठ करके उसके बाद सप्तशती चण्डी का पाठ करता है, उसकी जब तक वन, पर्वत और काननों सहित यह पृथ्वी टिकी रहती है, तब तक यहाँ पुत्र-पौत्र आदि संतान परम्परा बनी रहती है। |53-54|

फिर देह का अन्त होने पर वह पुरुष भगवती महामाया के प्रसाद से नित्य परमपद को प्राप्त होता है, जो देवतोओं के लिए भी दुर्लभ है। |55|

वह सुन्दर दिव्य रूप धारण करता और कल्याण शिव के साथ आनन्द का भागी होता है। |56|

।। इति देव्या: कवचं सम्पूर्णम् ।

अमरीकी तैराक मिसी फ्रेंकलिन ने पाई हिंदू ग्रंथों को पढने से शांति


ओलंपिक खेलों में पांच स्वर्ण पदक जीतने वाली करिश्माई तैराक मिसी फ्रेंकलिन को हिंदू ग्रंथों को पढ़ने से मानसिक शांति मिलती है। 

अमरीका की 23 साल की इस तैराक ने पिछले साल दिसंबर में संन्यास की घोषणा कर चौंका दिया था। कंधे के दर्द से परेशान इस तैराक ने संन्यास के बाद मनोरंजन के लिए योग करना शुरू किया। 

मगर हिंदू धर्म के बारे में जानने के बाद उनका झुकाव आध्यात्म की तरफ हुआ। अब वह जॉर्जिया विश्वविद्यालय में धर्म में पढ़ाई कर रही हैं।


अफगानिस्तान भी था कभी हिन्दूराष्ट्र


अफगानिस्तान 7वीं सदी तक अखंड भारत का एक हिस्सा था। यह पहले एक हिंदू राष्ट्र था। बाद में यह बौद्ध राष्ट्र बना और अब इस्लामिक राष्ट्र है। 17वीं सदी तक अफगानिस्तान नाम का कोई राष्ट्र नहीं था। आज कैसा है यह देश और कैसा जीवन जी रहे हैं यहां के लोग। आइए जानते हैं।

अफगानिस्तान को आर्याना, आर्यानुम्र वीजू, पख्तिया, खुरासान, पश्तूनख्वाह और रोह आदि नामों से पुकारा जाता था, जिसमें गांधार, कम्बोज, कुंभा, वर्णु, सुवास्तु आदि क्षेत्र थे। ईसा पूर्व 700 साल पहले तक इसके उत्तरी क्षेत्र में गांधार महाजनपद था, जिसके बारे में भारतीय स्रोत महाभारत तथा अन्य ग्रंथों में वर्णन मिलता है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत व्याकरणाचार्य पाणिनी और गुरु गोरखनाथ यहीं के बाशिंदे थे।

आज भी अफगानिस्तान के गांवों में बच्चों के नाम कनिष्क, आर्यन, वेद आदि रखे जाते हैं। अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे सभी वैदिक धर्म का पालन करते थे, फिर बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया।

संयुक्त राष्ट्र की संस्था यूनिसेफ के मुताबिक अफगानिस्तान की 50 फीसदी जनसंख्या का विवाह 15 साल की उम्र में ही हो जाता है। 33 फीसदी आबादी का विवाह 18 साल की उम्र में होता है। अफगानिस्तान में 14 जनजातियां निवास करती है। इस देश में मोबाइल फोन रखना प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है।

अफगानिस्तान में नया साल 21 मार्च को मनाया जाता है, जो बसंत का पहला दिन होता है। अफगान लोगों में परिवार का बहुत महत्व है और शादी के बाद सारा परिवार साथ रहता है। 

अफगान के हैरत शहर में गुरुवार रात को कविताओं का आयोजन होता है। यहां महिला, पुरुष और बच्चे इकट्ठा होते हैं। 

अफगानी लोग मुख्य तौर पर खेती करने अपना जीवनयापन करते हैं। हालांकि अफगानिस्तान में प्राकृतिक गैस और तेल का बड़ा भंडार है। 

अफगानी शिष्टाचार में हाथ मिलाना सामान्य बात है। लेकिन महिला-पुरुष का आपस में हाथ मिलाना दुर्लभ है। अफगानिस्तान में महिला और पुरुष की कोशिश होती है कि वे एक-दूसरे से आंख भी नहीं मिलाएं। अरेंज मैरिज का प्रचलन यहां ज्यादा है। 

अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख आदि स्थानों में अनेक मूर्तियों, स्तूपों, संघारामों, विश्वविद्यालयों और मंदिरों के अवशेष हैं। 

महमूद गजनी को सत्ता और लूटपाट के अलावा वह जीते हुए क्षेत्रों के मंदिरों, शिक्षा केंद्रों, मंडियों और भवनों को नष्ट करता जाता था और स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन कराता था। यह बात अल-बेरूनी, अल-उतबी, अल-मसूदी और अल-मकदीसी जैसे मुस्लिम इतिहासकारों ने भी लिखी हैं।

तेजी से बढ़ता हिंदूत्व, ऑस्ट्रेलिया सरकार मंदिर के लिए देगी 160000 डॉलर


ऑस्ट्रेलिया में हिन्दुत्व के सबसे तेजी से बढते धर्मों में से एक के तौर पर उभरने के साथ ही विक्टोरिया सरकार ने यहां श्री शिव विष्णु मंदिर के उन्नयन के लिए शुक्रवार (१६ फरवरी) को १६०,००० डॉलर की धनराशि देने की घोषणा की । कल्चर एंड हेरिटेज सेंटर को श्री शिव विष्णु मंदिर के तौर पर भी जाना जाता है । इसे वर्ष १९९४ में मंदिर का दर्जा दिया गया था । इसे दक्षिणी गोलार्द्ध में सबसे बडा हिन्दू मंदिर भी माना जाता है । विक्टोरिया में बहुसंस्कृति मामलों के मंत्री रोबिन स्कॉट ने शुक्रवार (१६ फरवरी) को मंदिर की यात्रा करते हुए कहा कि सरकार हिन्दू सोसाइटी ऑफ विक्टोरिया को १६०,००० डॉलर से ज्यादा की धनराशि कल्चरल एंड हैरिटेज सेंटर के उन्नयन के लिए देगी ।

उन्होंने कहा कि, राज्य सरकार समग्र समाज को बढावा देने के लिए उत्सुक है, जहां विक्टोरिया का हर नागरिक अपनी विरासत के दायरे में रहकर अपनी संस्कृति और परंपरा का संरक्षण कर सके तथा उसे साझा कर सके । लेबर पार्टी की सरकार की ओर से दिए गए कोष से सेंटर के वाहन मार्ग और प्रवेश द्वार का उन्न्यन किया जाएगा ।

स्कॉट ने कहा कि श्री शिव विष्णु मंदिर के उन्नयन से हमारे हिन्दू समुदाय को करुणा, निस्वार्थता, सद्भाव, सहिष्णुता और सम्मान के मूल्यों को स्थापित करने तथा साझा करने में मदद मिलेगी । वर्ष २०१६ की जनगणना के अनुसार ऑस्ट्रेलिया में ४४०,००० हिन्दू रहते हैं और २००६ से हिन्दू जनसंख्या में १.९ प्रतिशत की बढोतरी हुई है ।

इससे पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बीते रविवार (११ फरवरी) को वीडियो लिंकिंग के जरिए संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की राजधानी अबू धाबी में पहले हिन्दू मंदिर की आधारशिला रखी था । अबू धाबी में भारतीय मूल के तीस लाख से ज्यादा लोग रहते हैं । मंदिर समिति के सदस्यों ने मंदिर से जुडा साहित्य प्रधानमंत्री मोदी को शनिवार (१० फरवरी) रात यहां पहुंचने पर दिया । प्रधानमंत्री यूएई की २०१५ की अपनी यात्रा के बाद दूसरी बार यहां आए हैं । दुबई-अबू धाबी राजमार्ग पर बनने वाला यह अबू धाबी का पहला पत्थर से निर्मित मंदिर होगा । अबू धाबी में प्रथम हिन्दू मंदिर ५५,००० वर्ग मीटर भूमि पर बनेगा । भारतीय प्रधानमंत्री समुदाय के कार्यक्रम के दौरान मंदिर की आधारशिला रखे जाने के साक्षी बनें ।

छठ मैया कौन-सी देवी हैं? जानिये प्रमाणिक सत्य


कई लोगों के मन में ये सवाल उठता है कि छठ या सूर्यषष्‍ठी व्रत में सूर्य की पूजा की जाती है, तो साथ-साथ छठ मैया की भी पूजा क्‍यों की जाती है? छठ मैया का पुराणों में कोई वर्णन मिलता है क्‍या?

वैसे तो छठ अब केवल बिहार का ही प्रसिद्ध लोकपर्व नहीं रह गया है. इसका फैलाव देश-विदेश के उन सभी भागों में हो गया है, जहां इस प्रदेश के लोग जाकर बस गए हैं. इसके बावजूद बहुत बड़ी आबादी इस व्रत की मौलिक बातों से अनजान है.

आगे इन्‍हीं सवालों से जुड़ी प्रामाणिक जानकारी विस्‍तार से दी गई है.

पुराणों में षष्‍ठी माता का परिचय:

श्‍वेताश्‍वतरोपनिषद् में बताया गया है कि परमात्‍मा ने सृष्‍ट‍ि रचने के लिए स्‍वयं को दो भागों में बांटा. दाहिने भाग से पुरुष, बाएं भाग से प्रकृति का रूप सामने आया.

ब्रह्मवैवर्तपुराण के प्रकृतिखंड में बताया गया है कि सृष्‍ट‍ि की अधिष्‍ठात्री प्रकृति देवी के एक प्रमुख अंश को देवसेना कहा गया है. प्रकृति का छठा अंश होने के कारण इन देवी का एक प्रचलित नाम षष्‍ठी है. पुराण के अनुसार, ये देवी सभी बालकों की रक्षा करती हैं और उन्‍हें लंबी आयु देती हैं.

''षष्‍ठांशा प्रकृतेर्या च सा च षष्‍ठी प्रकीर्तिता |
बालकाधिष्‍ठातृदेवी विष्‍णुमाया च बालदा ||
आयु:प्रदा च बालानां धात्री रक्षणकारिणी |
सततं शिशुपार्श्‍वस्‍था योगेन सिद्ध‍ियोगिनी'' ||

(ब्रह्मवैवर्तपुराण/प्रकृतिखंड)

षष्‍ठी देवी को ही स्‍थानीय बोली में छठ मैया कहा गया है. षष्‍ठी देवी को ब्रह्मा की मानसपुत्री भी कहा गया है, जो नि:संतानों को संतान देती हैं और सभी बालकों की रक्षा करती हैं. आज भी देश के बड़े भाग में बच्‍चों के जन्‍म के छठे दिन षष्‍ठी पूजा या छठी पूजा का चलन है.

पुराणों में इन देवी का एक नाम कात्‍यायनी भी है. इनकी पूजा नवरात्र में षष्‍ठी तिथि‍ को होती है.

सूर्य का षष्‍ठी के दिन पूजन का महत्‍व:

हमारे धर्मग्रथों में हर देवी-देवता की पूजा के लिए कुछ विशेष तिथियां बताई गई हैं. उदाहरण के लिए, गणेश की पूजा चतुर्थी को, विष्‍णु की पूजा एकादशी को किए जाने का विधान है.

इसी तरह सूर्य की पूजा के साथ सप्‍तमी तिथि‍ जुड़ी है. सूर्य सप्‍तमी, रथ सप्‍तमी जैसे शब्‍दों से यह स्‍पष्‍ट है. लेकिन छठ में सूर्य का षष्‍ठी के दिन पूजन अनोखी बात है.

सूर्यषष्‍ठी व्रत में ब्रह्म और शक्‍त‍ि (प्रकृति और उनके अंश षष्‍ठी देवी), दोनों की पूजा साथ-साथ की जाती है. इसलिए व्रत करने वालों को दोनों की पूजा का फल मिलता है. यही बात इस पूजा को सबसे खास बनाती है.
महिलाओं ने छठ के लोकगीतों में इस पौराणिक परंपरा को जीवित रखा है. दो लाइनें देखिए:

''अन-धन सोनवा लागी पूजी देवलघरवा हे,
पुत्र लागी करीं हम छठी के बरतिया हे ''

दोनों की पूजा साथ-साथ किए जाने का उद्देश्‍य लोकगीतों से भी स्‍पष्‍ट है. इसमें व्रती कह रही हैं कि वे अन्‍न-धन, संपत्ति‍ आदि के लिए सूर्य देवता की पूजा कर रही हैं. संतान के लिए ममतामयी छठी माता या षष्‍ठी पूजन कर रही हैं.

इस तरह सूर्य और षष्‍ठी देवी की साथ-साथ पूजा किए जाने की परंपरा और इसके पीछे का कारण साफ हो जाता है. पुराण के विवरण से इसकी प्रामाणिकता भी स्‍पष्‍ट है.